हिंदी साहित्य में सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय अपनी सजग, अन्वेषी सृजनधर्मिता के कारण आधुनिक भावबोध के अग्रदूत के रूप में स्थापित हैं। अज्ञेय ने अपनी तात्विक दृष्टि से विभिन्न साहित्यिक विधाओं के सृजन और अन्वेषण को नया आयाम दिया। वास्तव में अज्ञेय को समझे बिना बीसवीं शताब्दी के हिंदी साहित्य के बुनियादी मर्म, उसके आत्मसंघर्ष, उसकी जातीय जीवनदृष्टि और उसके आधुनिक पुनराविष्कार को समझ पाना कठिन है। हिंदी के वैचारिक, सर्जनात्मक आधुनिक साहित्य पर अज्ञेय की गहरी और अमिट छाप है।
परंपरा, प्रयोग और आधुनिकता ऐसे विषय हैं, जिन्होंने हिंदी जगत में कुछ बुनियादी परिवर्तन किए। अज्ञेय ने इन विषयों पर हिंदी में जितना सार्थक, सजग और रचनात्मक लेखन और चिंतन किया, उतना किसी अन्य ने नहीं। वस्तुतः हिंदी में परंपरा और आधुनिकता को सदैव अलग-अलग वैचारिक आयामों से मापा जाता रहा, लेकिन अज्ञेय ने इस धारणा को स्पष्ट रूप से खंडित किया, उनका मानना है - परंपरा बदलती हुई परिस्थितियों के अनुरूप परिवर्तित होकर निरंतर जब नवीन होती जाएगी, तभी उसकी प्रासंगिकता है। परंपरा और प्रयोग दोनों एक-दूसरे से संपृक्त हैं, इन दोनों का संबंध ही जहाँ परंपरा को उसकी रूढ़िवादिता से आगे ले जाकर उसका पुनर्संस्कार करता है, वहीं प्रयोगों की अनिवार्यता भी सिद्ध करता है। इस तरह कवि के लिए सिर्फ परंपरा नहीं, उसका अपने युग के अनुरूप परिष्कार भी जरूरी है। परंपरा एक व्यापक अनुभव के रूप में समकालीन लेखक और साहित्य के लिए सार्थक महत्व रखती है। इसीलिए साहित्य में नए आयामों का प्रस्तुतीकरण और निर्वैक्तिकता बिना परंपरा के विशद ज्ञान के प्राप्त नहीं हो सकता और इस परंपरा का आगे के सार्थक उपयोग के लिए नए प्रयोगों की आवश्यकता होती है।
वास्तव में नई अनुभूतियों का स्वीकार और पुराने भाव-संयोजनो की रूढ़िवादिता का त्याग अथवा उनके प्रति विद्रोह का भाव ही प्रयोग की आवश्यकता को जन्म देता है। इसे ऐसे भी कहा जा सकता है कि जब रागबोध का स्वरूप जटिल हो जाता है तो उसके सहज संप्रेषण के लिए प्रयोगों की जरूरत होती है, यदि अज्ञेय की इस बात पर ध्यान दिया जाए 'हमारे मूल राग-विराग नहीं बदले, उनको व्यक्त करने की प्रणाली बदल गई है' तो यह स्पष्ट होगा कि कलाकार की संवेदनाएँ तभी जटिल रूप धारण करती हैं जब परवर्ती युगीन वास्तविकताओं से हमारे मूल राग-विराग टकराते हैं। जैसे-जैसे ये वास्तविकताएँ परिवर्तित होती जाती हैं, वैसे-वैसे रागात्मक संबंधों के व्यक्त करने की प्रणालियाँ भी बदलती जाती हैं, न बदले तो वास्तविकता से उनका संबंध टूट जाता है। प्रयोग एक सामाजिक आवश्यकता है और विकास का रास्ता भी वहीं से गुजरता है। साहित्य के सार्थकता के लिए भी ऐसे परिवर्तनों की जरूरत होती है, लेकिन बदलाव का अर्थ पूर्ववर्ती साहित्य की उपेक्षा नहीं है। उसे नई रचना के साथ-साथ अतीत की परंपरा के अध्ययन के लिए प्रयुक्त करना पड़ेगा। उससे पूर्ववर्ती काव्य परंपरा और आज के संदर्भ में उसकी प्रासंगिकता पर विचार करने में सहायता मिलती है। अज्ञेय का कहना है - ' हमारी पीढ़ी के कवि ऐसे स्थल पर पहुँच गए थे जहाँ उन्हें अपनी पिछली समूची परंपरा का अवलोकन करके आत्माभिव्यक्ति के नए मार्ग खोजने की आवश्यकता प्रतीत हो रही थी। प्रत्येक भाषा का शब्दकोश मरे हुए रूपकों का भंडार है किंतु हमारे युग में रूपकों की जीर्ण होने की यह क्रिया विशेष तेजी से हुई और साथ ही सामाजिक परिवर्तनों के साथ काव्य की वस्तु में असाधारण विस्तार आया। कवि ने सत्य देखे, नए व्यक्ति सत्य और सामाजिक सत्य और उनको व्यक्त करने के लिए भाषा को नए अर्थ देने की आवश्यकता हुई'। इस तरह हम देख सकते है नए सत्यों की सहज अभिव्यक्ति की बुनियाद प्रयोग ही है।
जिसे तथाकथित प्रयोगवाद कहा जाता है और अज्ञेय दूसरे सप्तक की भूमिका में जिसका जोरदार रूप से खंडन कर चुके थे उसमें आरंभ से ही परंपरा के प्रति विद्रोह और प्रयोग पर बल देने का भाव देखा जा सकता है। अज्ञेय स्वयं लेखकों को परंपरा से हट कर सृजन के लिए एक नया मार्ग तलाशने पर जोर देते हैं। अपने लिए भी वे यहीं कहते हैं -
मेरा आग्रह भी नहीं रहा
कि मैं चलूँ उसी पर
सदा पथ कहा गया, जो
इतने पैरों द्वारा रौंदा जाता रहा कि उस पर
कोई छाप नहीं पहचानी जा सकती थी
(अरी ओ करुणा प्रभामय, पृष्ठ-32)
अज्ञेय परंपरा को उसके समूचे रूप में ग्रहण करने के विरोधी हैं, क्योंकि परंपरा में न तो सब मूल्यवान है और न ही सारा कुछ व्यर्थ, यह रचनाकार के ऊपर निर्भर करता है कि वह उसमें से अपनी रचना के लिए क्या लेता है, क्या आत्मसात करता है, 'आत्मनेपद' में वह कहते हैं... 'ऐतिहासिक परंपरा कोई पोटली बाँध कर रखा हुआ पाथेय नहीं है जिसे उठा कर हम चल निकले, वह रस है, जिसे बूँद-बूँद अपने में हम संचय करते हैं या नहीं करते, कोरे रह जाते हैं।' इस टिप्पणी से स्पष्ट है कि अज्ञेय जहाँ एक तरफ परिस्थितिनिरपेक्ष परंपरा को स्वीकार नहीं करते, वहीं दूसरी तरफ परिस्थिति के सम्मुख समर्पण कर देने के बजाय परंपरा का सामर्थ्य इसमें मानते हैं कि वह नई परिस्थितियों का किस हद तक सामना कर सकती है। सामना करने और टकराने की यह स्थिति ही परंपरा का विकास या उसका नवीकरण है। अज्ञेय इन्हीं अर्थो में आधुनिक लेखक हैं। उनके लिए परंपरा ज्ञान की विकासशील प्रक्रिया है, जिसे रचनाकार को अपने अनुभव से चुनना होगा, तभी उसके लेखन कि सार्थकता है। इसीलिए वे लेखन के लिए शाश्वत मूल्यों को नहीं अनुभव के विकास को जरूरी मानते हैं... 'अनुभव कोई स्थिर या जड़पिंड नहीं, वह निरंतर विकसनशील है। बुद्धि का नए अनुभवों के आधार पर क्रमशः नया स्फुरण और प्रस्फुटन होता है और नया अनुभव पुराने अनुभव को मिटा नहीं देता, उसमें जुड़कर उसे नई परिपक्वता देता है। साहित्य में हम परंपरा की चर्चा इसी अर्थ में करते हैं, तारतम्यता उसमें अनिवार्य है'। (आधुनिक हिंदी साहित्य : पृष्ठ 11)
परंपरा को आत्मसात करना, उसको समय सापेक्ष बनाने के लिए प्रयोग की आवश्यकता और इन दोनों के समायोजन से आधुनिक रचना-दृष्टि की उत्पत्ति, अज्ञेय के समूचे साहित्य की बुनियाद और प्रधान बिंदु है... उनके लिए आधुनिकता का अर्थ परिस्थितियों के परिवर्तन के साथ नई प्रक्रियाओं का हिस्सा बन जाना है। वास्तव में किसी परंपरा द्वारा इतिहास के आगे प्रस्तुत की गई चुनौतियों की पहचान ही आधुनिकता को जन्म देती है। परंपरा अतीत की गहराइयों से निकलकर वर्तमान को मापते हुए भविष्य की ओर उन्मुख होती है। इस प्रकार एक संवाद जो निरंतर परंपरा और वर्तमान के बीच चलता रहता है, वही आधुनिकता को जन्म देता है।
पंद्रहवीं शताब्दी के आस-पास आधुनिकता का अर्थ कलाजगत में मानवीय संदर्भों के आधार पर लगाया गया और लगभग इसी समय आधुनिक विज्ञान ने नवीन आविष्कारों के द्वारा जन-जीवन को प्रभावित करना शुरू किया। तर्क और विश्लेषणमूलक चिंतन के आधार वाली स्थितियाँ सत्रहवीं शताब्दी तक यूरोपीय साहित्य में प्रतिफलित होने लगी थी और ये स्पष्ट रूप से भावात्मक और धारणामूलक चिंतन के प्रति विद्रोह की सूचक थी। विज्ञान के नए आविष्कारों से उस चिंतन में तर्क, विवेचन, अन्वेषण तथा प्रयोग जैसी स्थितियाँ उत्पन्न हुईं और इनके प्रभाव से कला जगत विशिष्ट हुआ। इस प्रकार प्राचीन व्यवस्था की सोच तथा चिंतन पद्धति को माँजकर, उसे नया संस्कार देकर तार्किक, अन्वेषणात्मक और प्रयोगशील बनाकर - नई परिस्थितियों के सामना करने के लिए तैयार किया गया। संस्कार देने की इस स्थिति को ही अज्ञेय आधुनिकता के रूप में देखते हैं। यही संस्कार लेखक की संवेदना से जुड़ता है। संवेदना और संस्कार का संबंध और उस संबंध का लचीलापन ही किसी प्रकार के कला की सर्जनात्मकता संभव करता है।
आधुनिकता का अर्थ अज्ञेय के लिए सिर्फ सामाजिक रूप से मूल्यनिरपेक्ष हो जाना नहीं है, बल्कि उनका मानना है कि उन मूल्यों के प्रति सजग होने की हमारी जिम्मेदारी बढ़ जाती है। लगातर उनका परीक्षण करते रहना हमारा कर्तव्य हो जाता है। उनका आशय मूल्यों के प्रति नैरेन्तैर्यता के प्रवाह को ही आधुनिकता मानने से है। यही वजह है कि अज्ञेय आधुनिकता को एक नए ढंग का कालबोध मानते हैं। वस्तुतः जैसे-जैसे कालबोध परिवर्तित होता है, वैसे ही बहुत सी चीजों के साथ हमारे संबंध भी अनिवार्य रूप से बदल जाते हैं जैसे इतिहास के साथ, सामाजिक परिवेश के साथ, तंत्र-श्रम और पूँजी के साथ, शासन-सत्ता एवं कला-साहित्य के साथ, इसीलिए अज्ञेय आधुनिकता में कालबोध और संवेदन का प्राथमिक महत्व मानते हुए उस पर आग्रह करते हैं। साहित्य सबसे पहले एक सार्थक रचनात्मक चेष्टा है, जिसमें सौंदर्य-दृष्टि और मानवीय मूल्यों की प्रधानता होती है। वरिष्ठ कवि कुँवरनारायण का कहना है - 'कलाओं में आधुनिकता का प्रमुख अर्थ यह होगा कि मनुष्य अपनी बनाई चीजों और अपने बारे में उपलब्ध नई-पुरानी जानकारियों को कैसे मानवीय और सुंदर बनाता है' (आज और आज से पहले)। चूँकि मानवीयता का यह स्वरूप रचनाकार के अपने संवेदन से जुड़ा होता है अतः साहित्य की आधुनिकता के लिए वह तो आवश्यक है ही, साथ ही उन संवेदनो की सहज-सार्थक प्रस्तुति और उसका संप्रेषण भी वांछित है, इस तरह अज्ञेय आधुनिकता को सीधे संप्रेषण और साधारणीकरण के मूल प्रश्न से जोड़ देते हैं - 'यदि हम आधुनिकता की चर्चा साहित्य और कलाओं के संदर्भ में करते हैं तो इन दोनों को जोड़कर रखना अनिवार्य हो जाता है। साहित्य और कला मूलतः एक संप्रेषण है'। (केंद्र और परिधि, पृष्ठ - 24)। साहित्य मूलतः अभिव्यक्ति और संप्रेषण का ही क्षेत्र है, इसलिए साहित्यकार को अपनी रचना-दृष्टि के विकास के लिए अपने संवेदन का बदलना अपरिहार्य है, नहीं तो साहित्य एक ही स्थान पर ठहर कर जड़ हो जाएगा। अज्ञेय कहते हैं - 'अगर हम नई परिस्थिति को और उससे उत्पन्न होनेवाली चुनौतियों को नहीं पहचानते तो हम विभिन्न कलाओं में आने वाले परिवर्तनों को ठीक-ठीक नहीं समझ सकते हैं। उनके मूल कारणों के साथ जोड़ नहीं सकते' (केंद्र और परिधि पृष्ठ - 324)।
इस तरह देखा जा सकता है अज्ञेय के लिए परंपरा, प्रयोग और आधुनिकता तीनों एक दूसरे से संपृक्त होकर ही अपनी सार्थकता सिद्ध करते है, जो परिवर्तन और नएपन के लिए अनिवार्य है। नए संवेदना बोध के साथ संप्रेषण की पद्धतियाँ भी बदले, साहित्य और रचनाकार की प्रासंगिकता इसी से बची रह सकती है। आधुनिकता संबंधी चिंतन अज्ञेय के लिए महज पश्चिमी नकल नहीं है, बल्कि वह स्वस्थ परिवर्तनों के अनुकूल रह कर उसे आत्मसात करने की प्रक्रिया है। वह आधुनिकता के संस्कार के लिए परंपरा की जड़ों तक लौट कर जाते हैं। अज्ञेय अपनी रचनाधर्मिता, अपने चिंतन से साहित्य को नई दिशा और दशा देते हैं और इस तरह से अपनी प्रासंगिकता को सिद्ध करते हैं। वास्तव में इस शती में जिन लोगो ने हिंदी साहित्य की स्थिति और नियति का निर्धारण किया है, उसमें अज्ञेय सर्वोपरि हैं।